मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
चर्चा चुगली-गेहूं की फसल में मांसाहारी कीट- लेडी बीटल
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शनिवार, 11 अप्रैल 2009
चर्चा चुगली !

समय: हाँडीवार।
स्थान: मलिक पिग्गरी फार्म,निडाना।
पात्र: रतना काला,बसाऊ अर् बागा । आख़िर में नरेंद्र बच्ची भी आग्या।
बसाऊ- रतने,के बात। इब कृषि विभाग अर् कृषि ज्ञान केन्द्र आले तनै किसे भी कार्यकर्म में नहीं बुलाते? मेरा ख्याल सै तनै वे प्रगतिशील की बजाय खूँटा ठोक समझन लाग लिए।
रतन-फेर मैं कद उनकी भातियाँ की ढाल बाट..........
"यू कौन सा चौधर का सवाल सै?"- बीच में ही बागे नै बात घुमाई अक् मनै न्यूँ बता गेहूं किसेक लिकडे।
रतन- पिच्पन मन की औसत आई सै।
"अँ! इतने! तेरे गेहुआं में तो शुरू में भी सुंडी थी अर् आख़िर में भी। इसके अलावा अल भी था। तनै किसे कीटनाशक का स्प्रे भी नहीं करया। फेर भी या कुदरत तेरे ऊपर मेहरबान क्यूकर हुई?"- बागे नै आश्चर्य से पूछा।
रतन- थारै जै याद हो तो अपने गाम का ज्ञानी पागलां की तरिया एक ही बात बार-बार कहें जाया करदा। "जी का जी बैरी अर् मक्खी का घी बैरी॥" इब मेरे या बात सौ की सौ जचन लागी।
बसाऊ- तेरी इस बात में दम सै। मनै ख़ुद अपनी आँख्यां तै लेडी बीटल अर् इसके बच्चे गेहूँ की फसल में अल/चेपा खाते देखे।छोटी छोटी सुंडी अर् अंडे खाते देखे। सिरफडो अर् कराइसोपा के बच्चे अल नै चेपते देखे। और तो और मनै तो इबकै यू चेपा रोग लाग़ कै मरते हुए भी देखा। सफ़ेद सी फफूंद थी जो इस चेपे नै बिलोवै थी। जै खुदा नै खास्ता किसानां नै इन लाभदायक कीड़ों की पहचान हो जा तो कुछ बात बनै।
रतन- बसाऊ। बात तो पूरी भी बन सकै सै जै सही पहचान के साथ साथ हमारा नजरिया भी सही हो तो। इबकै तो गेहूँ की फसल में शुरू तै ऐ सुंडी बैठी सै। या सुंडी धान की तना छेदक सुंडी सै। ललित खेडा वाले तो बल्कि न्यूँ भी कह थे अक् जीरो टिलेज मशीन के प्रचलन कै साथ ही गेहूं में इस कीड़े की शुरुआत हुई सै। राम जानै।कै यूनिवर्सिटी आले जानै। शुरुआत में सुंडी आने के कारण अबकी बार गेहूं नै खूब फूट करी। शुरुआत में कंसुआ लगने पर ईंख भी खूब फूट करा करदा।
बागा बीच में टपका- आ। शुरू में आ जा तो ठीक। पर या फुफनी तो आख़िर तक गडै थी। इस टेम बता या कुणसी फूट करवावैगी?
रतन- इस टेम भी अबकी बार एक नई बात देखन में आई। बालियों की अवस्था में इस तना छेदक का हमला होने पर प्रकोपित टहनी व बाली ही सूखते हैं। सबसे ऊपरवाला पत्ता जिसे हम पत्ताका पत्ता कहते,हरा ही बना रहता है। इसमें बनने वाला भोजन भावी पीढी के लिए विकसित हो रहे दानों में संग्रहित होने के लिए होता है। अत: बालीविहीन इस पत्ताका पत्ते में बना भोजन,पौधे की दूसरी टहनियों की बालियों के दानों में संग्रहित हो जाता। इसका मतलब शेष रहे दानों का वजन बढ जाता है।
इसलिए बागे अर् बसाऊ, डोले पे खड़ा होकै, सूखी बाली देख टोटा फलान का नजरिया इस देश में कीटनाशक कम्पनियाँ अर् डीलरां कै काम आवैगा।
स्थान: मलिक पिग्गरी फार्म,निडाना।
पात्र: रतना काला,बसाऊ अर् बागा । आख़िर में नरेंद्र बच्ची भी आग्या।
बसाऊ- रतने,के बात। इब कृषि विभाग अर् कृषि ज्ञान केन्द्र आले तनै किसे भी कार्यकर्म में नहीं बुलाते? मेरा ख्याल सै तनै वे प्रगतिशील की बजाय खूँटा ठोक समझन लाग लिए।
रतन-फेर मैं कद उनकी भातियाँ की ढाल बाट..........
"यू कौन सा चौधर का सवाल सै?"- बीच में ही बागे नै बात घुमाई अक् मनै न्यूँ बता गेहूं किसेक लिकडे।
रतन- पिच्पन मन की औसत आई सै।
"अँ! इतने! तेरे गेहुआं में तो शुरू में भी सुंडी थी अर् आख़िर में भी। इसके अलावा अल भी था। तनै किसे कीटनाशक का स्प्रे भी नहीं करया। फेर भी या कुदरत तेरे ऊपर मेहरबान क्यूकर हुई?"- बागे नै आश्चर्य से पूछा।
रतन- थारै जै याद हो तो अपने गाम का ज्ञानी पागलां की तरिया एक ही बात बार-बार कहें जाया करदा। "जी का जी बैरी अर् मक्खी का घी बैरी॥" इब मेरे या बात सौ की सौ जचन लागी।
बसाऊ- तेरी इस बात में दम सै। मनै ख़ुद अपनी आँख्यां तै लेडी बीटल अर् इसके बच्चे गेहूँ की फसल में अल/चेपा खाते देखे।छोटी छोटी सुंडी अर् अंडे खाते देखे। सिरफडो अर् कराइसोपा के बच्चे अल नै चेपते देखे। और तो और मनै तो इबकै यू चेपा रोग लाग़ कै मरते हुए भी देखा। सफ़ेद सी फफूंद थी जो इस चेपे नै बिलोवै थी। जै खुदा नै खास्ता किसानां नै इन लाभदायक कीड़ों की पहचान हो जा तो कुछ बात बनै।
रतन- बसाऊ। बात तो पूरी भी बन सकै सै जै सही पहचान के साथ साथ हमारा नजरिया भी सही हो तो। इबकै तो गेहूँ की फसल में शुरू तै ऐ सुंडी बैठी सै। या सुंडी धान की तना छेदक सुंडी सै। ललित खेडा वाले तो बल्कि न्यूँ भी कह थे अक् जीरो टिलेज मशीन के प्रचलन कै साथ ही गेहूं में इस कीड़े की शुरुआत हुई सै। राम जानै।कै यूनिवर्सिटी आले जानै। शुरुआत में सुंडी आने के कारण अबकी बार गेहूं नै खूब फूट करी। शुरुआत में कंसुआ लगने पर ईंख भी खूब फूट करा करदा।
बागा बीच में टपका- आ। शुरू में आ जा तो ठीक। पर या फुफनी तो आख़िर तक गडै थी। इस टेम बता या कुणसी फूट करवावैगी?
रतन- इस टेम भी अबकी बार एक नई बात देखन में आई। बालियों की अवस्था में इस तना छेदक का हमला होने पर प्रकोपित टहनी व बाली ही सूखते हैं। सबसे ऊपरवाला पत्ता जिसे हम पत्ताका पत्ता कहते,हरा ही बना रहता है। इसमें बनने वाला भोजन भावी पीढी के लिए विकसित हो रहे दानों में संग्रहित होने के लिए होता है। अत: बालीविहीन इस पत्ताका पत्ते में बना भोजन,पौधे की दूसरी टहनियों की बालियों के दानों में संग्रहित हो जाता। इसका मतलब शेष रहे दानों का वजन बढ जाता है।
इसलिए बागे अर् बसाऊ, डोले पे खड़ा होकै, सूखी बाली देख टोटा फलान का नजरिया इस देश में कीटनाशक कम्पनियाँ अर् डीलरां कै काम आवैगा।
नरेंद्र बच्ची- काका रतने, कदे तो गाम कै गोरे की भी बतला लिया कर। सारी हाण प्रकृति में द्वंद्व ढुँढन ना लागा रहा कर। लाग लपट कै, एक बै तो इन कीड़ों की पहचान ही करवादो किसानां नै।
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
बस यूँ ऐ
जवान बेटे कै मुंह तै या बात सुण लपरो का साँस ऊपर का ऊपर अर् तलै का तलै रहग्या। आवेश को अनुभव के आवरण में ढांप , उसने बेटे को बगल में बिठाया। फेर वा प्रेम तै पूछण लागी, "बेटा, एक तो तेरी बालक बुद्धि अर् ऊपर तै गेहूं की फसल में रहना। तनै भूल कै एक आध दाणा गेहूं का तो नहीं चाब लिया ?"
" नहीं ! माँ ! नहीं ! मैं स्प्रे लाग कै मरूं जै मनै यूँ कुकर्म करया हो तो।",

लपरो- "बस ठीक सै बेटा। गलती तो मेरी ऐ सै। मनै सुन राख्या था अक् जिसा खावै अन्न, उसा होवै मन। तेरे मुहं तै माणसाँ जैसी बात सुनकै मनै सोचा, कदे मेरे बेटे नै भी अन्न खा लिया हो? एक दिन इस निडाना गाम के मनबीर नै भी अपनी माँ तै यही बात पूछी थी। बेटे, मनबीर की माँ बेदो बैसठ साल पहल्यां पीहर की सोलह दीवाली खा कै इस गाम में ब्याहली आई थी। सुथरी इतनी अक् दीवै कै चांदणै में भरथा काला दो घड़ी मुँह देखता रहग्या था। अगले दिन भाभी न्यूँ पूछैं थी अक् आँ हो काले, फेरयाँ आली सारी रात जागा था, के? गाम के ब्याहल्याँ कै मन में मण मण मलाल था अक् थारै इसी सुथरी बहु क्यों नही आई । कल्चर के नाम पै एग्रीकल्चर के रूप में प्रसिद्ध इस हरियाणा में बिटौडां तै बडा कैनवस अर ऊंगलियाँ तै न्यारे ब्रुश कोन्या थे। फेर भी गाम के गाभरूआँ नै भरथे की बहु के रंग-रूप के न्यारे-न्यारे नैन-नक्श मन में बिठान की कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी। उसके हाण का एक बुड्डा तो परसों भी न्यू कहन लाग रहा था अक् दिनाँसर तो भरथे की बहु की घिट्टी पर को पानी थल्स्या करदा। रही बेदो के हुनर की बात, उसके मांडे अर् गाजर-कचरियाँ के साग का जिक्र पीहर अर् सांसरे में समान रूप से चलै था। बसलुम्भे से बनी उसकी फाँकी नै सारा गाम पेट दर्द में रामबाण माना करदा। कवथनांक एवं गलणाँक की परिभाषा से अपरिचित बेदो टिंडी ता कै निथारन की माहिर थी। के मजाल चेह्डू रहज्या। उसके हाथ का घाल्या घी किस्से नै ख़राब होया नहीं देखा। काम बेदो तै दो लाठी आगै चाल्या करदा। उठ पहर कै तड़के वा धड़ी पक्का पीसती व दूध बिलोंदी। रोटी टूका कर कै गोबर-पानी करदी। कलेवार तक इन सरे कामा तै निपट कै खेत में ज्वारा पहुँचांदी। वापिस घर पहुँच कै एक जोटा मारदी सोण का। जाग खुलते ही पीढा घाल कै दो ढाई बजे तक आँगन में बैठ जांदी। इस टेम नै वा अपना टेम कहा करदी। इस टेम में वा गाम की बहु-छोरियां नै आचार घालना, घोटा-पेमक लाणा व क्रोसिया सिखांदी। इसी टेम कुणक अर् कांटें कढवान आले आंदे। सुई अर् नकचुन्डी तो बेदो की उँगलियाँ पर नाच्या करदी। तीन बजे सी वा खूब जी ला के नहाया करदी। मसल मसल कै मैल अर् रगड़ रगड़ कै एडी साफ़ करदी। उसनै बेरया था अक् ओल्हे में को आखां में सुरमा, नाक में नाथ अर् काना में बुजनी, किसे नै दिखनी कोन्या। फेर भी वा सिंगार करन में कोई कसर नहीं छोड्या करदी। बराबराँ में कट अर् काख में गोज आले कुर्त्ते कै निचे पहरे बनियान नै वा सलवार तले दाबना कदे नहीं भुल्या करती। आख़िर में आठूँ उँगलियों से बंधेज पर खास अलबेट्टा दे कर सलवार नै सलीके सर करदी। बन ठन कै इब वा चालदी पानी नै। उसकी हिरणी-सी चाल नै देख कै रस्ते में ताश खेलनिये पत्ते गेरने भूल जांदे अर् न्यून कहंदे या चली भरथे की बहु पानी नै।", बेटे से हुंकारे भरवाते हुए लपरो नै आगै कथा बढाई, " बस बेटा, एक या ऐ बात थी जो भरथे नै सुहाया नहीं करदी।"
एक दिन मौका सा देख कै बेदो नै समझावण लाग्या अक् मनबीरे की माँ इब तू दो बालकाँ की माँ हो ली। इस उम्र में सादा पहरणा अर् सादा रहणा ऐ ठीक हो सै।
या सुन कै बेदो की हँसी छुट गई। अपनी इस बेलगाम हँसी को काबू कर बेदो नै मुस्कराते हुए,पहला सवाल दागा, "मनबीरे के बाबु, मनै बारह बरस हो लिए इस गाम में आई नै। आज तक कदे किसे की फी में आई?"
"ना। मनबीरे की माँ। ना।", कहन तै न्यारा कोई जवाब नहीं था भरथे के धोरै।
उसकी की इस ना से उत्साहित हो बेदो नै उल्हाना दिया, " जायरोए , टुम-टेखरी घडाणी तो दूर कदे दो मीटर का टुकड़ा भी ल्या कै दिया सै के?"
" ना। मनबीरे की माँ। ना।",भरथे की कैसट उलझ गई थी।
" कदे, तेरै घर के दानें दुकानां पै गेरे?",-बेदो रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
" ना। मनबीरे की माँ। ना। इब क्यूँ जमा पाछै पडली। मनै तो बस न्यूँ ऐ पूछ लिया था।" - भरथे नै बेदो को टालण की सोची।
बेदो- " तेरी इस बस न्यूँ ऐ नै तरली गोज में घाल ले। मनै बेसुरापन कोण सुहावै।"
बेदो का वजूद भरथे पै घना भारी पडै था। मन-मसोस कै रहग्या। दिनां कै दिन लाग रे थे अर् दिनां सर , बेदो नै छोरे ब्याह लिए। पोते-पोतियाँ आली होगी। पर बेदो की दिनचर्या अर् रहन-सहन का सलीका वही रहा। हाँ, बहुआं नै उसका पानी भरने का काम तो छुड़वा दिया था। इब हाण्डीवार सी बेदो नहा धो कर साफ सुथरे कपड़े पहन खेतां में घुम्मन जान लगी। बेटा, बेदो का यू सलीके सर रहना ना तो कदे भरथे नै भाया अर् ना इब ख़ुद के जाया नै सुहाया। एक दिन मौका-सा देख कै मनबीर माँ कै लोवै लाग्या। हिम्मत सी करके बोल्या अक् माँ, इस उमर में .................. ।
" बस बेटा। बस। समझ गई।"- कह कै बेदो नै बेटे की बात कै विराम लगा दिया। अर् न्यूँ पूछन लागी, "बेटा, थारा किम्में फालतू खर्चा कराऊ सूं? "
" ना। माँ। ना।"-मनबीर नै भी बाबू की पैड़ा में पैड़ धरी।
बेदो - " थारी बहुआँ नै नहान धौन तै बरजू सूं?"
ना! माँ! ना! - मनबीर नै जवाब दिया।
थारी बहुआँ नै साफ सुथरा पहरण तै नाटु सूं? - बेदो का बेटे से अगला सवाल था।
मनबीर - ना! माँ ! ना!
" सोलाह की आई थी, छियासठ की हो ली। इन पच्चास सालों में आडै किसे कै उलाहने में आई हों? कदे मेरे पीहर तै कोई बात आई हो? " - बेदो इब और खोद-खोद कै पूछन लगी।
मनबीर थूक गिटकते होए बोल्या - ना ! माँ! ना!
बेटा, अब बाजी बेदो के हाथ में थी वा बोली - फेर मेरे इस साफ सुथरा रहन पै इतना रंज क्यों?
नीचे नै नजर कर कै मनबीर नै बस इतना ही कहा - बस ! माँ ! बस ! न्यूँ ऐ ।
बेदो - "बेटा। थारा बाप भी इस "न्यूँ ऐ" की गोज भरे हांडै सै अर् इब थाम नै झोली कर ली। मनै तो मर्दाँ की इस "न्यूँ ऐ" अर् "रिश्तों" की थाह आज तक ना पाई।"
बेदो की आपबीती अपने बेटे गर्ब तै सुणा, लपरो उसने न्यूँ समझावन लागी - "मेरे गर्ब-गाभरू, इन माणसां कै समाज के रिश्ते तो पैदावारी सै। उलझ-पुलझ इनकी पैदावार, उलझ-पुलझ इनके रिश्ते-नाते और उलझ-पुलझ इनकी मानसिकता। यें भाई नै सबतै प्यारा बतावै अर् सबतै फालतू झगड़े भी भाईयाँ गेल करै। रायचंदआला के रूहिल गाम में भाईयाँ गेल बिगाड़ कै रोहद के रूहिलां में भाईचारा ढुँढते हांडै सै। घर, कुनबे, ठौले व गाम गेल बिघाड कै सिरसा में जा समाज टोहवै सै। और के बताऊ इनका किसानी समाज तो इसा स्याणा सै अक् बही नै तो सही बताया करै अर् घट्टे बीज नै बढा। बेटा, यें ऊत तो कीडों की बीजमारी कै चक्कर में अपनी बीजमारी का जुगाड़ करदे हाँडै सै।
इस लिए मेरे गाभरू आज पीछे इन माणसाँ की छौली अर् इनके कीटनाशकोँ तै बच कै रहिये। जब भी कोई मानस नजदीक आवै, ऊँची आवाज़ में गीत गाना शुरू कर दिया कर अक् .............
कीटाँ म्ह के सां कीटल
या जाणे दुनिया सारी ॥
अँगरेज़ कहें लेडी बीटल
लपरो हमनै कहें बिहारी ॥
जींद के बांगरू कहँ जोगन
खादर के म्हाँ मनियारी ॥
सोनफंखी भँवरे कहँ कवि
सां सौ के सौ मांसाहारी ॥ "

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शुक्रवार, 27 मार्च 2009
बी.टी.का ब्याह !
चैत की चौदस का चाँद पूर्वी आसमान में डिग्गी से ऊपर चढ लिया था। पर मलिक पिग्गरी फार्म में अपने पशुओं के रुखाली रतने का टेम पास होने का नाम नही ले रहा था। रतन की गिनती गाम के पुराने पापियाँ में हो सै। उन्निसौ तिएतर का बी.ए. पास सै। एक योजना गाम का सरपंच भी रह लिया। कृषि विभाग अर विज्ञान केन्द्र आला की नजर में प्रगतिशील किसान भी रह लिया। रतन की इस खास पहचान में गुणों पर रंग हमेशा भारी पड़ता रहा। इसीलिए तो गाम का चूची बच्चा भी रतन को रत्ना काले के रूप में जानता है। तीव्र रंग विरोधाभास के कारण ही आज बसाऊ अर बागे पंडित नै रत्ना काला रिंग बाँध पर तै दिखाई दे गया। अपने यारों के कदमों की आहट से उर्जावान व चाँद की मार्फत मिली सूरज की रश्मियों से दैदीप्मान रत्ना काला तुर्ताफुर्ती कमरे में गया और अगले ही क्षण हाथ में कुछ लिए वापिस चारपाई पर जम गया। जब तक भूतपूर्व सरपंच बसाऊ व भावी सरपंच बागा रतन के पास पहुचते,वह लालपरी को तिन गिलासों में डाल चुका था। ना दुआ सलाम अर ना उलाहना-मीणा। बस तीनों ने चुपचाप गिलास उठाकर आपस में टकराए। एक साथ चियर्स कह कर चुपी तोड़ने का सामूहिक रूप से सार्थक प्रयास किया। पुरा पैग हल्क में तार,रतने नै पूछा आज दिन में कित गडो थे? "आज तो, जींद उत्सव होटल में थे। बी.टी.का ब्याह था। कम्पनियों के क्षेत्रीय प्रबंधकों ने बिटिया बी.टी.की शादी जींद आकर करी सै। रिसेप्सन का सारा खर्चा कृषि विभाग नै ठा राख्या था। नौन्दा-निंधारी विभाग के कर्मचारी अर जिले के प्रगतिशील किसान थे। खाना के गजब......"
"कदे? काम की भी बतला लिया कर, " रतने नै बागे को बीच में ही टोका था।
बसाऊ पै भी चुप नहीं रहा गया, "और तो किम्में बात नहीं रतने, बीज आधुनिक, कंपनी आधुनिक, तकनीक आधुनिक, ब्याह करनीयें आधुनिक पर परम्परा पुराणी। दुल्हन बी.टी.स्टेज पर घूँघट काढ कै बिठा राखी थी। बी.टी.का परदे में रहना कानूनी रूप में लाजिमी बतावै थे। कानून भी कोई इ.पी.ए.1986 बतावैं थे। परम्परा और पैदावार का यु अंतरविरोध, म्हारै हज़म नहीं होया।"
रतना - " फेर तो जरुर किम्में रोल सै? इसपै किम्में सवाल-जवाब नहीं होए।"
बागा - "खूब होए, होए क्यूँ नहीं?
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